बुढापा
पेट है मगर रोटी नहीं ,बुढ़ापा एक बीमारी बन गई है ।
कोई काम नहीं देता,
जीवन एक पहेली बन गई है ।
मैले - कुचले फटे कपडे पहने,
भूख मिटाने की आस में,
कीचड़ में
कमल की जड़ की तलाश कर रही ।
चिलचिलाती धूप में ,
मैंने एक बूढी माँ को देखा ।
मेरा रोम - रोम सिहर उठा ।
जिन हाथों को
अब मात्र आशीर्वाद के लिए उठाना चाहिए,
वे कीचड़ से सने हैं ,
आखें नम और कंठ सूखा हुआ ।
ये कैसी प्रगति हम कर रहे हैं ?
एक ओर
कुत्ते की बर्थ डे पार्टी में
लाखों उड़ा देने वाले लोग,
दूसरी ओर
एक-एक रोटी के लिए तरसते लोग ।
ये कैसी व्यवस्था है?
इसमें परिवर्तन होना चाहिए,
बूढे -असहायों की मदद के लिए हाथ उठना चाहिए ।
उन्हें प्यार के साथ दो वक्त की रोटी चाहिए ।
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