दीपावली
दीवाली का रंग बदल गया,
मनाने का ढंग बदल गया,
बदल गए पैमाने
कुछ- कुछ
नजारा बदल गया है।
शाम होते ही
गोधूलि वेला में ,
मिट्टी के दिए
लबालब घी से भरे,
घर के द्वार पर,
पूजा के मंदिर में
गो शाला में
कुआँ- बावली के मुँडेर पर,
अपनी सुरभित आभा से
आलोकित कर,
तिमिर को हरते,
जगमग करते,
घी के सुगंध से
गृह मंदिर को आलोड़ित कर,
अपनी चिर- परिचित
मुस्कान विखेरते
अक्सर देखे जाते,
आज वह खो गया है,
पूजा की थाली सजातीं
मातृ शक्ति, भक्ति में अनुरक्त,
मुहूर्त के इंतजार में
द्वार और चौकी पर डालती
अल्पनाएं,
होतीं व्रत संयुक्त।
शंख- घड़ियाल और घंटी की धुन सुन
झांझ- मंजीरे की रुनझुन - रुनझुन,
सुन प्रफुल्लित हो उठता तन-मन।
मन्त्र के स्वर होते मुखर
हृदय के तार झंकृत कर
छड़ भर सुध- बुध विस्मृत कर
आनन्द की अनुभूति कराते,
रत जगा कर भक्ति में मदमाते
न जाने आज कहाँ खो गया है
टिमटिमाते दिए
न जाने कहाँ खोते जा रहे हैं,
चाइनीज बल्ब सर्वत्र
टिमटिमाते नजर आते है
हवन की खुशबू ,
अगर की गंध से
सारा जहाँ होता सुवासित ,
आज पटाको की चिरान्ध से
जीव का दम घुट रहा है।
होड़ सी लगी है
धनिकों में
बम- पटाको की लच्छी जलाने में,
सड़के अट जातीं
गलियाँ कुरूप हो जातीं,
पटाकों की रैपर सुतली - तागों से।
आसमान का रंग हो जाता बदरंग ,
दिन में भी सर्द रातो सी धुंध छा जाता,
पटाकों की शोर से,
छटपटाते ,
अबोध बच्चे, पक्षी
रोगियो का दिल धड़क जाता।
सभ्यता का शिखर जो चूमतेेे
भरते ज्ञान का दंभ
आज उनका
ज्ञान कहीं खो गया है,
बन गए भस्मासुर अनेक,
निज को
भस्म करने को है -उद्दत,
शांति और अमन छिन गया है।
दीवाली मनाने का पैमाना बदल गया है।