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       जिंदगी जिंदगी फूल- सी है, कुदरत की गोद में खिलती है, मुस्कराती है, खुशबू से फिजा को महकाती है, और एक दिन बिखरकर, बसुन्धरा की ग...

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Monday, December 21, 2015

बच्चों के लिए ध्यान जरूरी

🌟 बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए भी उपयोगी है- ध्यान
हम अपने बच्चों को खाना सिखाते हैं, चलना सिखाते हैं, पढ़ना - लिखना, खेलना-कूदना, नाचना-गाना, पेंटिंग-रंगोली आदि-आदि  सिखाते हैं। इतना ही नहीं यदि बच्चे नहीं सीख़ पाते तो अलग से  सिखाने के लिए शिक्षक भी रखते हैं। बच्चे पर अच्छे अंक लाने का मानसिक दबाव भी डालते हैं। उसे कई प्रकार के प्रलोभन भी देते हैं। टॉफी , वीडियोगेम, चाट खिलाने, साईकिल, मोटर साईकिल आदि  खरीदकर देते हैं। यदि इसके बावजूद भी वह अच्छे अंक न ला पाएं तो उसे डांटते भी हैं।
अपने बच्चे का भविष्य बनाने के लिए क्या- नही करते। हम जो न बन सके या जो हम न कर सके उसे अपने बच्चे से कराने को सोचते हैं। उसे डॉक्टर,इंजीनियर, कलेक्टर या कोई बड़ा आफिसर बनाना चाहते हैं। लेकिन उसे अच्छा इंसान नहीं। हमारी अपेक्षा तले पिसकर रह जाता है और वह इंसान नहीं बन पाता।
उसमे मानवीय गुण दया, करुणा, सहिष्णुता, सेवा,परोपकार ,
आइए अब जरा विचार करें।
क्या इससे बच्चे का समग्र विकास होता है? क्या वह समाज के लिए उपयोगी है?
क्या पैसा कमाना ही शिक्षा का उद्देश्य है?
क्या बड़ा होने के बाद वह आपके अनुकूल व्यवहार करता है?
क्या उसमें मानवीय गुणों का सही विकास हुआ ?
क्या वह अंतहीन प्रतिस्पर्धा का एक अंग बनकर रह गया?
जीवन का परम लक्ष्य अपने को जानना, आत्म साक्षात्कार करना क्या इस प्रकार की शिक्षा से संभव है?
यदि उपरोक्त प्रश्नो का उत्तर  ढूढ़ें तो हमें निराशा  ही हाथ लगेगी।
लेकिन वे जो सिर्फ भौतिक सुख के प्रेमी हैं उन्हें मेरे विचार से असहमत होंना ही चाहिए।
किन्तु एक बात जो सत्य है जिससे हम दूर होते जा रहे है वह है अपना ज्ञान। ज्ञान, जिसे विवेकानंद , महर्षि अरविन्द जैसे मनीषियों ने हासिल कर जगत में अमर हो गए।  कबीर,मीरा,जैसे अनपढ़ प्राप्त कर अमर हो गए।
कहने का तात्पर्य यह की पुस्तकीय ज्ञान से भौतिक सुख  तो मिल सकता है किन्तु आध्यात्मिक नहीं।
भौतिक सुख बिना आध्यात्मिक सुख के नीरस है, व्यर्थ है, अनुपयोगी है।
अब प्रश्न उठता है कि हम क्या करें जिससे कि हमारे बच्चे जिंदगी के आपाधापी में विषम परिस्थितियों में भी हतास , निराश एवं तनावग्रस्त न हों?
इसके लिए जितनी जिम्मेदारी विद्यालयों की है
उससे कहीँ अधिक माता-पिता की है।
बचपन से ही बच्चों में मानवीय गुणों का विकास करना आवश्यक है। सर्वाधिक समय बच्चे अपने परिवार के साथ ही रहते हैं। इसलिए उनके प्रत्येक व्यवहार पर नजर  माता-पिता को ही रखना चाहिए। उनमे अच्छी आदतों का विकास करना चाहिए।
उसके दोस्त कौन हैं? वह कब और क्यों उदास होता है? अधिकांश समय किन कार्यों में व्यतीत करता ? परिवार  और समाज के सदस्यों के साथ उसका व्यवहार कैसा है?
आदि बातों का ध्यान रखना होगा।
बच्चों में अच्छे संस्कार डालने का सबसे सरल उपाय है- उसे प्रार्थना में भाग लेने के लिए प्रेरित करें। कुछ क्षण के लिए आँखें बंद कर मौन रहने का अभ्यास कराएँ। इससे एकाग्रता शक्ति का विकास तो होता ही है साथ ही उसमें आत्मशक्ति , अभय का भी विकास होता है।
अपने से बड़ों का सम्मान करना सिखाएं।उनसे आशीष प्राप्त करने के लिए दादा,दादी,पापा-मम्मी के चरण छूँनें की आदत का विकास करें।
इसके अतिरिक्त उसे घर में होने वाले आध्यात्मिक कार्यो में भाग लेने के लिए प्रेरित करें। क्योकि प्रत्येक मनुष्य के जन्म का मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति करना ही होता है । यहाँ यह उल्लेखनीय है क़ि वे माता-पिता जो अपने बच्चों को धन कमाने के लिए आवश्यक तालीम मुहैया कराने के साथ-साथआध्यात्मिक उन्नति के अवसर भी उपलब्ध कराते हैं। वास्तव में वे ही अपने बच्चों के साथ न्याय करते हैं।
आध्यात्मिक उन्नति के विकास के लिए निश्चित स्थान, निश्चित समय और निश्चित अवधि तक नियमित ध्यान ही एक मात्र उपाय है जो स्वयं पर निर्भर करता है।
ध्यान  वह माध्यम है जिससे हम अपने अंदर छुपी हुई शक्ति को जाग्रत कर अपना और औरों का कल्याण कर सकते हैं।
ध्यान की प्रक्रिया से मन शांत होने लगता है, मन शांत होने से तनाव अपने आप दूर हो जाता है।
ध्यान से मानसिक शक्ति का विकास होता है।मेधा शक्ति बढ़ती है।अतः हमें नियमित ध्यान करना चाहिए।







Thursday, December 10, 2015

बच्चे और योग

              योग क्यों करें?   

             समाज में योग के संबन्ध में कई भ्रांतियां हैं। लोगो की अलग- धारणाएं हैं। एक वर्ग ऐसा है जिसका मानना है, योग करना साधु- संतों का काम है। यह वन में जाकर की जाने वाली एक कठिन साधना है। जो न हमारे वश की है, ना ही हमारे लिए उपयोगी है।
          एक वर्ग ऐसा भी है,  जो इसे मात्र बीमार और कमजोर लोगों के लिए उपयोगी और आवश्यक मानता है। उनका कहना है - "योग वे करें जो बीमार हैं हमें कोई बीमारी  है नही , हम योग  क्यों करें?"
         इसी प्रकार शारीरिक श्रम करने वाले इसे अपने लिए अनुपयोगी मानते हैं। उनका तर्क होता है, "हम वैसे ही इतना परिश्रम कर लेते हैं,अलग से योग क्यों करें? "
         एक वर्ग है ऊषापान करने वालों का ( मॉर्निंग वॉकर), इनका भी तर्क शानदार होता है- "हम सुबह उठकर पैदल चल लेते हैं, पर्याप्त कसरत हो जाती है, अलग से योग करके समय क्यों नष्ट करें?"
     इसी प्रकार समाज के हर वर्ग का योग ना कर पाने के अपने-अपने तर्क हैं। कोई समय ना मिलने का बहाना बनाते हैं तो कोई देर रात सोने के कारण सुबह ना उठ पाने का।
      एक वर्ग और है , वह है - हमारे बच्चे, आज के विद्यार्थियों का । इनके भी योग ना करने के अपने कारण  हैं- "देर रात तक पढ़ना और सुबह उठकर ट्यूसन चले जाना। योग करें तो कितने समय करें और करें भी तो क्यों करें ?"
     मानव का स्वभाव है, वह वही काम करना चाहता है, जिससे उसे आनन्द प्राप्त होता है या कुछ मिलने वाला होता है। वह बिना लाभ के  कोई भी काम  करना पसन्द नहीं करता । इसमें मुझे कोई दोष नजर नहीं आता। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके तर्क गलत है या सच हैं। बल्कि इन तर्कों के पीछे छिपे कारणों की पहचान करने और उनके समाधान के उपाय तलाशने की आवश्यकता है।
    वास्तव में योग एक जीवन शैली है। स्वस्थ और सुखमय जीवन जीने की कला है। योग को किस प्रकार अपने जीवन में उतारें और अपने जीवन को सुखमय, निरोगमय, और सुंदर बनाएं। अतः योग प्रकृति का अनुपम उपहार है।
       योग बच्चों के लिए किस प्रकार उपयोगी है इस विषय पर विचार करते हैं। बच्चे दिन भर सक्रिय रहते हैं । कठिन मानसिक और शारीरिक परिश्रम करते हैं। उन्हें सामान्य व्यक्ति की तुलना में अधिक ऊर्जा चाहिए। यह ऊर्जा उन्हें भोजन से प्राप्त होती है।
            हमारी ऊर्जा का अधिकांश भाग अनावश्यक चल रहे विचारों में खर्च हो जाता है। इसे इस तरह से समझें कि मोबाईल में आंतरिक रूप से चल रहे अनावश्यक स्वसंचालित एप्प्स मोबाईल की बैटरी को चट कर जाते हैं। ठीक उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क में चल रहे विचारों में हमारी ऊर्जा खपत होती रहती है। हम जल्दी थकान अनुभव करने लगते हैं। मन लगाकर पढाई नहीं कर पाते।
       अतः इस अंतः प्रवाहित विचारों से मुक्ति का एक मात्र उपाय है -योग को अपनी दिनचर्या में शामिल कर लेना। जब हम योग की विधाओं जैसे- सूर्य नमस्कार, प्राणायाम, ध्यान एवं शिथिलीकरण आदि का प्रयोग करते हैं। इससे मस्तिष्क के कुविचार रुपी खरपतवार नष्ट होने लगते हैं। मन- मस्तिष्क शुध्द और स्वस्थ होने लगता है।
       बच्चों की एक बड़ी समस्या होती है, याद की गई बात को जल्दी भूल जाना या याद ना कर पाना। दूसरे शब्दों में इसे स्मृतिदौर्बल्य भी कहा जाता है। यह एक प्रकार की बीमारी ही है। स्वस्थ स्मृति के बिना अच्छे अंक ला पाना संभव नहीं है। स्मृति विकास हेतु योग से अच्छा  समाधान कोई नहीं है। स्मृति विकासक योगिक अभ्यासों में प्राणायाम में भस्त्रिका, अनुलोम- विलोम, भ्रामरी या महाप्राण ध्वनि अत्यंत उपयोगी हैं। इसके अतिरिक्त ध्यान का 10 मिनट प्रति दिन अभ्यास करना भी लाभकारी है। इसके साथ- साथ रात को जल्दी सोना सुबह जल्दी उठना। सुबह खाली पेट 5-6 बादामों का सेवन भी किया जा सकता है।
        बच्चों की एक समस्या और होती है, जानते हुए भी,गलत हो जाने की भय से अपनी बात न रख पाना। इसे आत्मविश्वास में कमी होना कहा जाता है। योग में इसका भी समाधान है। कायोत्सर्ग एवंअभय की अनुप्रेक्षा , महाप्राण ध्वनि और उद गीथ प्राणायाम में से कोई भी अभ्यास करें और उक्त समस्या से छुटकारा पाएं।
        कुछ बच्चे जब पढ़ने बैठते हैं तो उनका मन नहीं लगता । जल्दी नींद सी आने लगती है। 10 मिनट एकाग्र होकर बैठ नहीं पाते। इसे ध्यान भंग या एकाग्रता में कमी कहा जाता है । वास्तव में  तन्द्रा की स्थिति में पढ़ा गया पाठ याद नहीं होता । समय और शक्ति दोनों नष्ट होती रहती है।
      इस विकट समस्या का समाधान योग में है।शिथिलीकरण और प्राणायाम तथा ध्यान की विधियों का अभ्यास कर इस समस्या से भी निजात पा सकते हैं। जब हम योगिक अभ्यास करते हैं उस समय ब्रह्माण्डीय ऊर्जा हमारे शरीर में प्रविष्ट होकर हमें ऊर्जावान बना देती है।
     मैंने यह अनुभव किया है कि समाज का ऐसा कोई वर्ग नहीं है जो योग की महिमा को न जानता हो। अर्थात योग से होने वाले लाभों से सभी परिचित हैं। फिर भी कुछ लोग योग नहीं करते। ऐसा क्यों ? इसका उल्लेख लेख के प्रारंभ में किया गया है।  वास्तव में इन सबके अंदर एक समस्या है- वह है ,  समय का नियोजन । दिनचर्या का अस्त-व्यस्त होंना। यदि इसे व्यवस्थित कर लिया जाय तो स्वमेव कई समस्याओं का समाधान हो जाता है।
 नीलेश कुमार शुक्ल 
शिक्षक शा. उत्कृष्ट उ. मा. वि. रघुराज क्र. 2 शहडोल  

Sunday, April 12, 2015

बच्चों के समग्र विकास के लिए भी उपयोगी है- ध्यान

🌟 बच्चों के समग्र  विकास के लिए भी उपयोगी है- ध्यान🌻
           हम अपने बच्चों को खाना सिखाते हैं, चलना सिखाते हैं, पढ़ना - लिखना, खेलना-कूदना, नाचना-गाना, पेंटिंग-रंगोली आदि-आदि  सिखाते हैं। इतना ही नहीं यदि बच्चे नहीं सीख़ पाते तो अलग से  सिखाने के लिए शिक्षक भी रखते हैं। बच्चे पर अच्छे अंक लाने का मानसिक दबाव भी डालते हैं। उसे कई प्रकार के प्रलोभन भी देते हैं। टॉफी , वीडियोगेम, चाट खिलाने, साईकिल, मोटर साईकिल आदि  खरीदकर देते हैं। यदि इसके बावजूद भी वह अच्छे अंक न ला पाएं तो उसे डांटते भी हैं।
         अपने बच्चे का भविष्य बनाने के लिए क्या- नही करते। हम जो न बन सके या जो हम न कर सके उसे अपने बच्चे से कराने को सोचते हैं। उसे डॉक्टर,इंजीनियर, कलेक्टर या कोई बड़ा आफिसर बनाना चाहते हैं। लेकिन उसे अच्छा इंसान नहीं। हमारी अपेक्षा तले पिसकर रह जाता है और वह इंसान नहीं बन पाता।
उसमे मानवीय गुणों का विकास नहीं हो पाता।
आइए अब जरा विचार करें।
क्या इससे बच्चे का समग्र विकास होता है?
क्या वह समाज के लिए उपयोगी है?
क्या पैसा कमाना ही शिक्षा का उद्देश्य है?
क्या बड़ा होने के बाद वह आपके अनुकूल व्यवहार करता है?
क्या उसमें मानवीय गुणों का सही विकास हुआ ?
क्या वह अंतहीन प्रतिस्पर्धा का एक अंग बनकर रह गया?
जीवन का परम लक्ष्य अपने को जानना, आत्म साक्षात्कार करना क्या इस प्रकार की शिक्षा से संभव है?
यदि उपरोक्त प्रश्नो का उत्तर  ढूढ़ें तो हमें निराशा  ही हाथ लगेगी।
लेकिन वे जो सिर्फ भौतिक सुख के प्रेमी हैं उन्हें मेरे विचार से असहमत होंना ही चाहिए।
         किन्तु एक बात जो सत्य है जिससे हम दूर होते जा रहे है, वह है अपना ज्ञान। ज्ञान, जिसे विवेकानंद , महर्षि अरविन्द जैसे मनीषियों ने हासिल कर जगत में अमर हो गए।  कबीर,मीरा,जैसे अनपढ़ प्राप्त कर समाज को नई दिशा  दे गए।
           कहने का तात्पर्य यह की पुस्तकीय ज्ञान से भौतिक सुख  तो मिल सकता है किन्तु आध्यात्मिक नहीं।
भौतिक सुख, बिना आध्यात्मिक सुख के  नीरस है, व्यर्थ है, अनुपयोगी है।
           अब प्रश्न उठता है कि हम क्या करें जिससे कि हमारे बच्चे जिंदगी के आपाधापी में विषम परिस्थितियों में भी हतास , निराश एवं तनावग्रस्त न हों?
इसके लिए जितनी जिम्मेदारी विद्यालयों की है।  उससे कहीँ अधिक माता-पिता की है। बचपन से ही बच्चों में मानवीय गुणों का विकास करना आवश्यक है। सर्वाधिक समय बच्चे अपने परिवार के साथ ही रहते हैं, इसलिए उनके प्रत्येक व्यवहार पर नजर  माता-पिता को ही रखना चाहिए। उनमे अच्छी आदतों का विकास करना चाहिए।
          उसके दोस्त कौन हैं? वह कब और क्यों उदास होता है? अधिकांश समय किन कार्यों में व्यतीत करता ? परिवार  और समाज के सदस्यों के साथ उसका व्यवहार कैसा है?
आदि बातों का ध्यान रखना होगा।
         बच्चों में अच्छे संस्कार डालने का सबसे सरल उपाय है- उसे प्रार्थना में भाग लेने के लिए प्रेरित करें। कुछ क्षण के लिए आँखें बंद कर मौन रहने का अभ्यास कराएँ। उसे ध्यान करने के लिए प्रोत्साहित करें । ऐसा करने से  एकाग्रता शक्ति का विकास तो होता ही है साथ ही उसमें आत्मशक्ति , अभय का भी विकास होता है।
        अपने से बड़ों का सम्मान करना सिखाएं।उनसे आशीष प्राप्त करने के लिए दादा,दादी,पापा-मम्मी के चरण छूँनें की आदत का विकास करें। उनमें  नैतिक गुणों के विकास हेतु अवसरों का सृजन करें ।
          इसके अतिरिक्त उन्हें  घर में होने वाले आध्यात्मिक कार्यो में भाग लेने के लिए प्रेरित करें। क्योकि प्रत्येक मनुष्य के जन्म का मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति करना ही होता है । यहाँ यह उल्लेखनीय है क़ि वे माता-पिता जो अपने बच्चों को धन कमाने के लिए आवश्यक तालीम मुहैया कराने के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति के अवसर भी उपलब्ध कराते हैं। वास्तव में वे ही अपने बच्चों के साथ न्याय करते हैं।
            आध्यात्मिक उन्नति के विकास के लिए निश्चित स्थान, निश्चित समय और निश्चित अवधि तक नियमित ध्यान ही एक मात्र उपाय है जो स्वयं पर निर्भर करता है।
         ध्यान  वह माध्यम है जिससे हम अपने अंदर छुपी हुई शक्ति को जाग्रत कर अपना और औरों का कल्याण कर सकते हैं।
          ध्यान की प्रक्रिया से मन शांत होने लगता है, मन शांत होने से तनाव अपने आप दूर हो जाता है।
ध्यान से मानसिक शक्ति का विकास होता है।मेधा शक्ति बढ़ती है। निर्णय करने की क्षमता का विकास होता है । एकाग्रता की अवधि में वृध्दि होती है । एकाग्रता के बिना अध्ययन अपूर्ण है ।
        अतः  अब हम पर निर्भर करता है कि हम अपने बच्चों का विकास कैसा चाहते है - एकांगी या समग्र  समग्र विकास का एक ही सरल , सहज और सर्वोत्तम मार्ग है - ध्यान। 









Saturday, March 7, 2015

बच्चों के विकास का पैरामीटर

🌿बच्चों में अच्छी आदतों का विकास का मीटर-
👉 जब बच्चे सुबह आते ही आप से हाथ जोड़कर नमस्ते करें।
👉 कक्षा में प्रवेश करने के पहले या कक्षा से बाहर जाने के पूर्व अपने साथी कोआप से अनुमति न मांगने पर टोके।
👉  पेन्सिल को छीलने से निकले छिलके को कूड़ेदान पर डालने के लिए अपने साथी को कहे और स्वयं कचरेदान का उपयोग करे।
👉  दोपहर का भोजन करने के पहले हैण्ड पंप में जाकर साबुन से हाथ धोए। जो हाथ न धोया हो उसकी शिकायत करे।
👉 उसे परिवेश की गंदगी दिखाई देने लगे।
👉 अगर किसी बच्चे का नाखून बढ़ा हो उसे काटने के लिए कहे।
👉 पढ़ते समय बार -बार छुट्टी न माँगे।
👉 प्रश्न पूछने पर सिर झुकाकर न खड़ा हो।
तो समझे कि बच्चे में अच्छी आदतों का विकास हो रहा है।

खुद सुधारो, जग सुधरेगा

         🌺खुद सुधरो, जग सुधरेगा🌺
मनुष्य स्वयं से अधिक दूसरों के प्रति सजग रहता है। स्वयं को देखने की उसे फुरसत नहीं होती। ढेर सारी बुराइयां अपने अंदर होती है, किन्तु वह हमें दिखाई नहीं देतीं। कबीरदास जी ने ठीक ही कहा है-
बुरा जो  देखन मैं चला, बुरा न दीखा कोय।
जो दिल खोजा आपनो, मुझसा बुरा न कोय।।
इसलिए यदि जग को सुंदर बनाना है, बुराइयों से मुक्त करना है, सुधारना है तो यह नेक काम अपने से शुरू करो।
व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज , समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है।
एक बात और
इस विचार पर गौर करें
एक चोर चोरी न करने को कहे।
एक शराबी शराब न पीने को कहे,
एक झूठा-लंपट सत्य बोलने का उपदेश दे,
खुद तो लेटकर टीवी देखें और बच्चे से कहें क़ि लेटकर टीवी देखना अच्छा नहीं,
घर का कुढ़ा- कचरा खुद तो सड़क पर फेकें और दूसरों से अपेक्षा करें , वे कूड़ेदान में फेकें,
क्या कोई भी इनकी बात सुनने को तैयार होगा ? मुझे तो नहीं लगता , आप अपनी जानो।
आज के परिवेश में यदि कुछ बदलाव लाना चाहते हैं, तो स्वयं को बदलो , अपने कर्म में अपनी वाणी को उतारो।
आज उपदेशकों की भरमार है, करने वाले कम हैं । इसलिए कबीरदास जी की इस वाणी को अपने कर्म  के धरातल पर अवतीर्ण करने की आवश्यकता है-
कहता तो बहुत मिल्या, करता मिला न कोय।
कहता बहि जान दो, करता संग होय।।

योग मार्ग जितना कठिन है उतना ही सरल भी है। यह कैसे ?आइए इसे समझें। कठिन इसलिए क्योकि इस मार्ग पर चलने के लिए विशेष तैयारी करनी पड़ती है।बिना तैयारी के एक कदम भी नही चल सकते । हाँ , इसकी तैयारी ही तो कठिन है। फिर  सबकुछ आसान ही आसान है।
आइए ,अब हम जानें ,इसकी तैयारी कैसे करें। सर्व प्रथम हमें दस मित्र बनाने होंगे जो पग-पग में हमारा साथ देंगे। ये मित्र हमें तन से और मन से मजबूत बनाते हैं। ऐसा माना जाता है क़ि योग का मार्ग अत्यंत संकरा  और जोखिम भरा है। प्रतिपल पथ विचलित होने का डर बना रहता है। लेकिन एक निश्चित दूरी तक पहुंचने के बाद यदि आप पथच्युत भी होते हैं तो सद्गुरु की कृपा से उसी स्थान से आपकी यात्रा प्रारंभ होती है। इस स्थान का नाम है, आज्ञा चक्र।
आइए, अब हम जानें योगमार्ग के मित्रों के बारे में। ये शारीरिक एवं वैचारिक शुद्धि के लिए अपमार्जक की भूमिका निभाते हैं। इन्हें योग ऋषियों नें यम और नियम की संज्ञा दी है। पांच यम और पांच नियम हैँ।
सत्य, अहिंशा, अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य ये पांच यम हैं। शौच,संतोष, तप,स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान ये नियम हैं। इन्हें ही हमें अपना परममित्र बनाना है।
इन मित्रों में सत्य सबसे बड़ा और शक्तिशाली है। इसकी साधना से शेष सभी आसानी से सध जाते हैं। सत्य को मित्र बनाने के लिए मन , वचन , और कर्म से सत्य को अपनाना होता है।
अब प्रश्न उठता है  कि सत्य क्या है? इसकी साधना कैसे करें? इसे जीवन में कैसे अपनाएं?
जो जिस रूप में है उसको उसी रूप में जानना , अनुभव करना एवं व्यवहार में लाना ही सत्य है। मनीषियों ने सत्य को ईश्वर  कहा है। छोटे-छोटे संकल्पों से सत्य को अपने जीवन में उतरा जा सकता है। जैसे - जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु निश्चित है। जो ऐसा जानता है वास्तव में वही सत्य जान रहा है। सत्य के विषय में यह सत्य उदघाटित करना आवश्यक है कि सत्य बाह्य जगत में नहीँ अपितु अन्तः जगत में विद्यमान होता है।
योग मार्ग का दूसरा मित्र अहिंशा है। अहिंशा सभी प्राणियों को अभय देने वाला, करुणा और प्रेम का दूसरा नाम है। अहिंशा से जुड़कर प्राणी परमात्मा की अनुपम कृतियों का सच्चा पुजारी बन जाता है। वह निडर और निर्भीक  हो जाता है। मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। जगत में उसे सब अपने हितैषी नजर आने लगते है। बैर भाव दूर हो जाता है।
इसकी साधना के लिए बस इतना करना है क़ि मैं जगत के जीवों से वही व्यवहार करूँगा जो मुझे अच्छे लगते हैं, सुख पहुचाते हैं। यही से अहिंशा को अपना मित्र बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ।
इस मार्ग का तीसरा मित्र है ,अस्तेय । जब तक हम मन ,वचन और कर्म से स्तेय का अर्थात चोरी परित्याग नहीँ करते तब तक इस मित्र को हम अपना मित्र नहीँ बना सकते। मन में कुछ और व्यवहार में कुछ और । यह भी एक प्रकार का स्तेय ही है।
अपरिग्रह, यह इस मार्ग का चौथा मित्र है। इसे मित्र बनाने के लिए हमें संग्रह की प्रवृत्ति  का परित्याग करना होगा। हमारे जीवन रक्षा के लिए जितनी वस्तुएं चाहिए , उतना ही अपने पास रखें शेष जरूरत मंदो को बाँट देना चाहिए। अपरिग्रह द्वारा मोह  से अपने आप छुटकारा मिल जाता है। मोह दुखों का मूल हेतु है, यह बंधनकारी होता है।इससे जितना जल्दी
आप मुक्त होंगे उतना जल्दी योग के मार्ग में आगे बढ़ेंगे। इस मित्र के सम्पर्क में आते ही आप चिंता मुक्त होने लगते हैं।
ब्रह्मचर्य , पांचवां किन्तु महत्वपूर्ण मित्र है। मन,वचन और कर्म से ब्रह्म  में रत रहना। अपनी ओज शक्ति का संरक्षण करना। सृष्टि की संरचना हेतु  ही काम को  कुछ छणों के लिए  अपनाना। इसे मित्र बनाते ही शरीर ओज से भर जाता है। इन मित्रों को यम के नाम से भी जाना जाता है।
छठा मित्र है, शौच
शौच अर्थात पवित्रता। तन का मन का। लेश मात्र मन बुरे विचारों से अपवित्र न हो। तन की शुध्दता जल से और मन की शुध्दता भगवत स्मरण से। जब हम शौच को अपने जीवन में उतारते हैं तो सत्य का अवतरण होता है। बिना शौच के हम एक कदम योग मार्ग में आगे नहीं बढ़ सकते।
संतोष इस मार्ग का सातवां मित्र है। संतोष  अर्थात  उद्यम से जो कुछ प्राप्त होता है उसमे संतोष करना। और अधिक के लिए प्रयत्न करना किन्तु  मार्ग पवित्र हो। दूसरे की उपलब्धि पर ईर्षा न करना। अपितु अपनी क्षमता का विकास कर अपनी उपलब्धि को बढ़ाना। संतोष का अर्थ  कर्तव्य विमुख  होना नहीँ अपितु कर्तव्य करने से जो कुछ मिला वही अपना है - से है।
तप, आठवां मित्र है। तप , तन से मन से और कर्म से ।  प्राणी मात्र को अपने तन से कष्ट न पहुंचाना। हमेशा दूसरों को सुख पहुचाने के प्रति तत्पर रहना।
स्वाध्याय, इस मार्ग का नवम् मित्र। इसे मित्र बनाने से स्व स्वरूप के अनुसंधान में सहायता मिलती है।  यह दो अर्थो में प्रयुक्त होता है- 1. अपने बारे में जानना, आत्मावलोकन।
2. सद् साहित्यों का अध्ययन,अनुशीलन करना। यह आत्मशुध्दि का एक साधन है।
नित स्वाध्याय करने से मन निर्मल हो जाता है। एकाग्रता शक्ति का विकास होता है।
ईश्वर प्राणिधान, अर्थात तन, मन, प्राण, बुध्दि से किए गए कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देना। कर्ता के अहम से मुक्त होंना।  जब तक अहम रहेगा तब तक योग मार्ग में एक कदम भी चलना कठिन होगा। जैसे ही इस दसवें मित्र को कोई साधक  अपने जीवन में शामिल करता है वैसे ही वह निश्चिन्त हो जाता है। चिंता मुक्त होने के लिए इन दसों मित्रों को साधना होगा।




                      🌻मार्ग🌼
प्रत्येक जीव के पास दो मार्ग हैं- श्रेय और हेय।
यह उस जीव पर निर्भर करता है कि वह कौन सा मार्ग चुनता है। आइए जानें इन दोनों मार्गों की क्या विशेषताएं हैं।
🌞 श्रेय- यह जीव को ब्रम्ह से मिलन कराने का मार्ग है। निर्भय का मार्ग है। सत्य अनुसन्धान का मार्ग है। आत्म -साक्षात्कार का मार्ग है। जीव को जीवन-मरण के चक्र से बचाने का मार्ग है। मृत्यु के भय से मुक्ति का मार्ग है। यह योग का मार्ग है। योग अर्थात अपनी ओर  वापस लौटने का मार्ग है। इस मार्ग को चुनकर जीव आत्मोन्नति कर सकता है।  क्योंकि यह प्रकाश का मार्ग है । इस मार्ग में शांति है। कभी समाप्त न होने वाला सुख है।
☀हेय- यह जीव को जगत में उलझाने का मार्ग है। पतन का मार्ग है। जीव अपने से दूर होता चला जाता है। यह भोग का मार्ग है। इस मार्ग में क्षणिक सुख है। दुखों का अंतहीन सागर है। भोग में संलिप्त हो जीव अपने जन्म के कार्य कारण और परिणाम को विस्मृत कर देता है। अंतहीन दुःख के सागर में हिचकोलें खाता मृत्यु के काल गाल में समा जाता है। जीव जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं हो पाता।
इंद्रिय सुख की लालसा में अपना संपूर्ण जीवन लगा देता है। अंत में उसके हाथ भय , निराशा, पश्चाताप ही आता है। ..............
                                             नीलेश शुक्ल

होली

                🌻होली🌻
होली का नाम सुनते ही
रंग की
भंग की
मौज-मस्ती की
याद जेहन में दौड़ जाती है।
किन्तु
होली सिर्फ
रंग नहीं
भंग नहीं
मौज- मस्ती नहीं
कुछ और भी है।
होली उमंग है
निच्छल प्रेम की तरंग है,
सामाजिक समरसता,
भाई-चारा
और
सत्य विजय का
अदभुत -लाजबाव रंग है।
आइए
नए अंदाज से होली मनाएं,
गिले-शिकबे भूलकर
हिल-मिल कर
अन्तः के रंगो  के संग
रंग  घोलकर,
रंगारंग होली का पर्व मनाएं।।
                           नीलेश शुक्ल












Tuesday, November 12, 2013

धरती माता का भी ध्यान रखें

त्योहार क्यों आते हैं?
त्योहार क्यों मनाते हैं?
हमें त्योहार कैसे मनाना चाहिए?
शायद हम भूल गए हैं।
इसीलिए तो
होली में केमकिल से युक्त रंग का प्रयोग करते हैं।
दीपावली में पटाके चलाकर पयार्वरण को प्रदूषित करते हैं।
और अपने को अच्छा मानते हैं।
तर्क देते हैं ,
साल में एक बार त्योहार आता है,
एक दिन में-
कितना प्रदूषण हो जाएगा,
कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा,
बिना रंगों की होली,
बिना पटाकों की दीवाली,
क्या मनाई जा सकती है?
बात में दम है?

नहीं,
रंग ही खेलना हो तो
प्राकृतकि रंग का प्रयोग किया जा सकता है,
इससे हम और  हमारी धरती माता
दोनों सुरिक्षित रह सकते हैं।
जल और जमीन दूषित होने से बच सकते हैं।

दीपावली,
दीपों की वली अर्थात दीपों की माला
दीप जलाकर-
घर एवं बाहर को प्रकाशित कर सकते हैं,
पटाकों के जहरीले धुए से-
शोर से ,
प्रकृति को,
स्वयं को,
भावी पीढ़ी को,
बचा सकने में अपना योगदान कर सकते हैं।

चिन्तन करें,
मनन करें,
मेरे स्कूल के बच्चों के संकल्प के साथ जुड़ें,
पटाके न फोड़कर,
अपितु दीप जलाकर,
दीपावली मनाएगे।
व्यर्थ के कुतर्कों से अपने को बचाएगे।

यदि लक्ष्मी को प्रसन्न करना है
तो,
राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार!
तुलसी भीतर बहारों जौ चाह्सी उजियार!!