कुल्हाडी बज रही है ,
कहीं दूर ।
अरण्य में फड़फड़ाते हैं ,
पक्षी, पिक, सारंग,मयूर ।
चौककर उदग्रीव शावक हिरणें देखती हैं घूर।
सोचतीं ,
आज का मानव कैसा हो गया क्रूर ।
पेड़ काटने में अपने को समझता है शूर ,
हाय ,हम क्या करें?
आज नहीं ,
वह कल रोयेगा बिसूर- बिसूर ॥
कहीं दूर ।
अरण्य में फड़फड़ाते हैं ,
पक्षी, पिक, सारंग,मयूर ।
चौककर उदग्रीव शावक हिरणें देखती हैं घूर।
सोचतीं ,
आज का मानव कैसा हो गया क्रूर ।
पेड़ काटने में अपने को समझता है शूर ,
हाय ,हम क्या करें?
आज नहीं ,
वह कल रोयेगा बिसूर- बिसूर ॥
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