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जिंदगी

       जिंदगी जिंदगी फूल- सी है, कुदरत की गोद में खिलती है, मुस्कराती है, खुशबू से फिजा को महकाती है, और एक दिन बिखरकर, बसुन्धरा की ग...

Friday, March 23, 2018

यह कैसा आनंद (व्यंग्य रचना )

व्यंग्य रचना 
यह कैसा आनंद
यदि आनन्द पूछना है तो उनसे पूछिए जो पीठ पीछे बुराई करते हैं । पीठ पीछे बुराई का  मजा ही कुछ और होता है। चटकारे मारते हुए बखिया उखाड़ने की कला में माहिर जन को कभी बोर नही होना पड़ता। उनका वदन अलग ही दिखाई पड़ता है। चेहरे पर विद्रूप हँसी हमेशा विद्यमान रहती है। ये जब तक निंदा के शतक नहीं लगा लेते विश्राम नहीं करते।
ये यदि बुझे से दिखें तुरन्त इन्हें निंदा शक्तिवर्धक अवलेह चटा दें। जैसे ही आप चटाएंगे वैसे ही ये हरे- भरे हो जाएँगे। चेहरे पर वही चमक लौट आती है जो पहले थी।
आज ऐसे लोग बिरले ही होंगे जो यह कहकर उनकी निंदा को खुजलादेते होंगे कि कुत्ते भौंकते रहते हैं हाथी अपनी चाल चलता रहता है। अपनी निंदा अपने सामने सुनने का साहस बिरले में  होता है
कबीर ने निंदक को अपने पास आँगन- कुटी बनवाकर रखने को कहा है। उन्होंने कहा-
निंदक नियरे राखिए आँगन- कुटी छवाय।
बिन पानी साबुना, निर्मल करै सुभाय।।
यदि निंदा बुरी चीज होती, निंदक बुरे होते तो एक संत उन्हें क्यों अपने साथ रखने के लिए कहता।

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