योग मार्ग जितना कठिन है उतना ही सरल भी है। यह कैसे ?आइए इसे समझें। कठिन इसलिए क्योकि इस मार्ग पर चलने के लिए विशेष तैयारी करनी पड़ती है।बिना तैयारी के एक कदम भी नही चल सकते । हाँ , इसकी तैयारी ही तो कठिन है। फिर सबकुछ आसान ही आसान है।
आइए ,अब हम जानें ,इसकी तैयारी कैसे करें। सर्व प्रथम हमें दस मित्र बनाने होंगे जो पग-पग में हमारा साथ देंगे। ये मित्र हमें तन से और मन से मजबूत बनाते हैं। ऐसा माना जाता है क़ि योग का मार्ग अत्यंत संकरा और जोखिम भरा है। प्रतिपल पथ विचलित होने का डर बना रहता है। लेकिन एक निश्चित दूरी तक पहुंचने के बाद यदि आप पथच्युत भी होते हैं तो सद्गुरु की कृपा से उसी स्थान से आपकी यात्रा प्रारंभ होती है। इस स्थान का नाम है, आज्ञा चक्र।
आइए, अब हम जानें योगमार्ग के मित्रों के बारे में। ये शारीरिक एवं वैचारिक शुद्धि के लिए अपमार्जक की भूमिका निभाते हैं। इन्हें योग ऋषियों नें यम और नियम की संज्ञा दी है। पांच यम और पांच नियम हैँ।
सत्य, अहिंशा, अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य ये पांच यम हैं। शौच,संतोष, तप,स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान ये नियम हैं। इन्हें ही हमें अपना परममित्र बनाना है।
इन मित्रों में सत्य सबसे बड़ा और शक्तिशाली है। इसकी साधना से शेष सभी आसानी से सध जाते हैं। सत्य को मित्र बनाने के लिए मन , वचन , और कर्म से सत्य को अपनाना होता है।
अब प्रश्न उठता है कि सत्य क्या है? इसकी साधना कैसे करें? इसे जीवन में कैसे अपनाएं?
जो जिस रूप में है उसको उसी रूप में जानना , अनुभव करना एवं व्यवहार में लाना ही सत्य है। मनीषियों ने सत्य को ईश्वर कहा है। छोटे-छोटे संकल्पों से सत्य को अपने जीवन में उतरा जा सकता है। जैसे - जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु निश्चित है। जो ऐसा जानता है वास्तव में वही सत्य जान रहा है। सत्य के विषय में यह सत्य उदघाटित करना आवश्यक है कि सत्य बाह्य जगत में नहीँ अपितु अन्तः जगत में विद्यमान होता है।
योग मार्ग का दूसरा मित्र अहिंशा है। अहिंशा सभी प्राणियों को अभय देने वाला, करुणा और प्रेम का दूसरा नाम है। अहिंशा से जुड़कर प्राणी परमात्मा की अनुपम कृतियों का सच्चा पुजारी बन जाता है। वह निडर और निर्भीक हो जाता है। मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। जगत में उसे सब अपने हितैषी नजर आने लगते है। बैर भाव दूर हो जाता है।
इसकी साधना के लिए बस इतना करना है क़ि मैं जगत के जीवों से वही व्यवहार करूँगा जो मुझे अच्छे लगते हैं, सुख पहुचाते हैं। यही से अहिंशा को अपना मित्र बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ।
इस मार्ग का तीसरा मित्र है ,अस्तेय । जब तक हम मन ,वचन और कर्म से स्तेय का अर्थात चोरी परित्याग नहीँ करते तब तक इस मित्र को हम अपना मित्र नहीँ बना सकते। मन में कुछ और व्यवहार में कुछ और । यह भी एक प्रकार का स्तेय ही है।
अपरिग्रह, यह इस मार्ग का चौथा मित्र है। इसे मित्र बनाने के लिए हमें संग्रह की प्रवृत्ति का परित्याग करना होगा। हमारे जीवन रक्षा के लिए जितनी वस्तुएं चाहिए , उतना ही अपने पास रखें शेष जरूरत मंदो को बाँट देना चाहिए। अपरिग्रह द्वारा मोह से अपने आप छुटकारा मिल जाता है। मोह दुखों का मूल हेतु है, यह बंधनकारी होता है।इससे जितना जल्दी
आप मुक्त होंगे उतना जल्दी योग के मार्ग में आगे बढ़ेंगे। इस मित्र के सम्पर्क में आते ही आप चिंता मुक्त होने लगते हैं।
ब्रह्मचर्य , पांचवां किन्तु महत्वपूर्ण मित्र है। मन,वचन और कर्म से ब्रह्म में रत रहना। अपनी ओज शक्ति का संरक्षण करना। सृष्टि की संरचना हेतु ही काम को कुछ छणों के लिए अपनाना। इसे मित्र बनाते ही शरीर ओज से भर जाता है। इन मित्रों को यम के नाम से भी जाना जाता है।
छठा मित्र है, शौच
शौच अर्थात पवित्रता। तन का मन का। लेश मात्र मन बुरे विचारों से अपवित्र न हो। तन की शुध्दता जल से और मन की शुध्दता भगवत स्मरण से। जब हम शौच को अपने जीवन में उतारते हैं तो सत्य का अवतरण होता है। बिना शौच के हम एक कदम योग मार्ग में आगे नहीं बढ़ सकते।
संतोष इस मार्ग का सातवां मित्र है। संतोष अर्थात उद्यम से जो कुछ प्राप्त होता है उसमे संतोष करना। और अधिक के लिए प्रयत्न करना किन्तु मार्ग पवित्र हो। दूसरे की उपलब्धि पर ईर्षा न करना। अपितु अपनी क्षमता का विकास कर अपनी उपलब्धि को बढ़ाना। संतोष का अर्थ कर्तव्य विमुख होना नहीँ अपितु कर्तव्य करने से जो कुछ मिला वही अपना है - से है।
तप, आठवां मित्र है। तप , तन से मन से और कर्म से । प्राणी मात्र को अपने तन से कष्ट न पहुंचाना। हमेशा दूसरों को सुख पहुचाने के प्रति तत्पर रहना।
स्वाध्याय, इस मार्ग का नवम् मित्र। इसे मित्र बनाने से स्व स्वरूप के अनुसंधान में सहायता मिलती है। यह दो अर्थो में प्रयुक्त होता है- 1. अपने बारे में जानना, आत्मावलोकन।
2. सद् साहित्यों का अध्ययन,अनुशीलन करना। यह आत्मशुध्दि का एक साधन है।
नित स्वाध्याय करने से मन निर्मल हो जाता है। एकाग्रता शक्ति का विकास होता है।
ईश्वर प्राणिधान, अर्थात तन, मन, प्राण, बुध्दि से किए गए कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देना। कर्ता के अहम से मुक्त होंना। जब तक अहम रहेगा तब तक योग मार्ग में एक कदम भी चलना कठिन होगा। जैसे ही इस दसवें मित्र को कोई साधक अपने जीवन में शामिल करता है वैसे ही वह निश्चिन्त हो जाता है। चिंता मुक्त होने के लिए इन दसों मित्रों को साधना होगा।
आइए ,अब हम जानें ,इसकी तैयारी कैसे करें। सर्व प्रथम हमें दस मित्र बनाने होंगे जो पग-पग में हमारा साथ देंगे। ये मित्र हमें तन से और मन से मजबूत बनाते हैं। ऐसा माना जाता है क़ि योग का मार्ग अत्यंत संकरा और जोखिम भरा है। प्रतिपल पथ विचलित होने का डर बना रहता है। लेकिन एक निश्चित दूरी तक पहुंचने के बाद यदि आप पथच्युत भी होते हैं तो सद्गुरु की कृपा से उसी स्थान से आपकी यात्रा प्रारंभ होती है। इस स्थान का नाम है, आज्ञा चक्र।
आइए, अब हम जानें योगमार्ग के मित्रों के बारे में। ये शारीरिक एवं वैचारिक शुद्धि के लिए अपमार्जक की भूमिका निभाते हैं। इन्हें योग ऋषियों नें यम और नियम की संज्ञा दी है। पांच यम और पांच नियम हैँ।
सत्य, अहिंशा, अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य ये पांच यम हैं। शौच,संतोष, तप,स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान ये नियम हैं। इन्हें ही हमें अपना परममित्र बनाना है।
इन मित्रों में सत्य सबसे बड़ा और शक्तिशाली है। इसकी साधना से शेष सभी आसानी से सध जाते हैं। सत्य को मित्र बनाने के लिए मन , वचन , और कर्म से सत्य को अपनाना होता है।
अब प्रश्न उठता है कि सत्य क्या है? इसकी साधना कैसे करें? इसे जीवन में कैसे अपनाएं?
जो जिस रूप में है उसको उसी रूप में जानना , अनुभव करना एवं व्यवहार में लाना ही सत्य है। मनीषियों ने सत्य को ईश्वर कहा है। छोटे-छोटे संकल्पों से सत्य को अपने जीवन में उतरा जा सकता है। जैसे - जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु निश्चित है। जो ऐसा जानता है वास्तव में वही सत्य जान रहा है। सत्य के विषय में यह सत्य उदघाटित करना आवश्यक है कि सत्य बाह्य जगत में नहीँ अपितु अन्तः जगत में विद्यमान होता है।
योग मार्ग का दूसरा मित्र अहिंशा है। अहिंशा सभी प्राणियों को अभय देने वाला, करुणा और प्रेम का दूसरा नाम है। अहिंशा से जुड़कर प्राणी परमात्मा की अनुपम कृतियों का सच्चा पुजारी बन जाता है। वह निडर और निर्भीक हो जाता है। मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। जगत में उसे सब अपने हितैषी नजर आने लगते है। बैर भाव दूर हो जाता है।
इसकी साधना के लिए बस इतना करना है क़ि मैं जगत के जीवों से वही व्यवहार करूँगा जो मुझे अच्छे लगते हैं, सुख पहुचाते हैं। यही से अहिंशा को अपना मित्र बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ।
इस मार्ग का तीसरा मित्र है ,अस्तेय । जब तक हम मन ,वचन और कर्म से स्तेय का अर्थात चोरी परित्याग नहीँ करते तब तक इस मित्र को हम अपना मित्र नहीँ बना सकते। मन में कुछ और व्यवहार में कुछ और । यह भी एक प्रकार का स्तेय ही है।
अपरिग्रह, यह इस मार्ग का चौथा मित्र है। इसे मित्र बनाने के लिए हमें संग्रह की प्रवृत्ति का परित्याग करना होगा। हमारे जीवन रक्षा के लिए जितनी वस्तुएं चाहिए , उतना ही अपने पास रखें शेष जरूरत मंदो को बाँट देना चाहिए। अपरिग्रह द्वारा मोह से अपने आप छुटकारा मिल जाता है। मोह दुखों का मूल हेतु है, यह बंधनकारी होता है।इससे जितना जल्दी
आप मुक्त होंगे उतना जल्दी योग के मार्ग में आगे बढ़ेंगे। इस मित्र के सम्पर्क में आते ही आप चिंता मुक्त होने लगते हैं।
ब्रह्मचर्य , पांचवां किन्तु महत्वपूर्ण मित्र है। मन,वचन और कर्म से ब्रह्म में रत रहना। अपनी ओज शक्ति का संरक्षण करना। सृष्टि की संरचना हेतु ही काम को कुछ छणों के लिए अपनाना। इसे मित्र बनाते ही शरीर ओज से भर जाता है। इन मित्रों को यम के नाम से भी जाना जाता है।
छठा मित्र है, शौच
शौच अर्थात पवित्रता। तन का मन का। लेश मात्र मन बुरे विचारों से अपवित्र न हो। तन की शुध्दता जल से और मन की शुध्दता भगवत स्मरण से। जब हम शौच को अपने जीवन में उतारते हैं तो सत्य का अवतरण होता है। बिना शौच के हम एक कदम योग मार्ग में आगे नहीं बढ़ सकते।
संतोष इस मार्ग का सातवां मित्र है। संतोष अर्थात उद्यम से जो कुछ प्राप्त होता है उसमे संतोष करना। और अधिक के लिए प्रयत्न करना किन्तु मार्ग पवित्र हो। दूसरे की उपलब्धि पर ईर्षा न करना। अपितु अपनी क्षमता का विकास कर अपनी उपलब्धि को बढ़ाना। संतोष का अर्थ कर्तव्य विमुख होना नहीँ अपितु कर्तव्य करने से जो कुछ मिला वही अपना है - से है।
तप, आठवां मित्र है। तप , तन से मन से और कर्म से । प्राणी मात्र को अपने तन से कष्ट न पहुंचाना। हमेशा दूसरों को सुख पहुचाने के प्रति तत्पर रहना।
स्वाध्याय, इस मार्ग का नवम् मित्र। इसे मित्र बनाने से स्व स्वरूप के अनुसंधान में सहायता मिलती है। यह दो अर्थो में प्रयुक्त होता है- 1. अपने बारे में जानना, आत्मावलोकन।
2. सद् साहित्यों का अध्ययन,अनुशीलन करना। यह आत्मशुध्दि का एक साधन है।
नित स्वाध्याय करने से मन निर्मल हो जाता है। एकाग्रता शक्ति का विकास होता है।
ईश्वर प्राणिधान, अर्थात तन, मन, प्राण, बुध्दि से किए गए कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देना। कर्ता के अहम से मुक्त होंना। जब तक अहम रहेगा तब तक योग मार्ग में एक कदम भी चलना कठिन होगा। जैसे ही इस दसवें मित्र को कोई साधक अपने जीवन में शामिल करता है वैसे ही वह निश्चिन्त हो जाता है। चिंता मुक्त होने के लिए इन दसों मित्रों को साधना होगा।
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